परिचय

आध्यात्मिक विश्वविद्यालय

आध्यात्मिक विश्वविद्यालय में आपका स्वागत है, आध्यात्मिक विश्वविद्यालय किसी भी व्यक्ति को आध्यात्म या सत्य-कर्म का मार्ग प्रदर्शित नहीं करता है और नाहीं किसी भी व्यक्ति को आध्यात्म या सत्य-कर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करता है किन्तु जो व्यक्ति स्वयं अपनी इच्छा से सत्य-कर्म के मार्ग पर चलने के इच्छुक है या जो व्यक्ति सत्य-कर्म के मार्ग से विचलित होकर भटक गए है या फिर जो व्यक्ति किसी भी प्रकार के समस्या से परेशान है तो ऐसे व्यक्तियों को सत्य-कर्म का मार्ग प्रदर्शित करना ही आध्यात्मिक विश्वविद्यालय का मुख्य कार्य, लक्ष्य एवं उद्देश्य है।

सत्य-कर्म के मार्ग पर चलने से कोई भी व्यक्ति साधु-संत या सन्यासी नहीं बनते है बल्कि सभी प्रकार के सांसारिक एवं भौतिक सुखों का सम्पूर्ण आनंद लेते हुए अंत में मोक्ष या शांति प्राप्त करते है जो किसी भी असत्य-कर्म करने वाले व्यक्ति के लिए दुर्लभ या असंभव है, प्रारंभ में सत्य-कर्म के मार्ग पर चलने से कुछ समस्या आती है जो असत्य-कर्म के फल स्वरुप सामने नजर आते है किन्तु निरंतर अपने आत्म-प्रयास से व्यक्ति अपने जीवन के समस्याओं के निल नदी को सरलता से पार करके अपने परिवार एवं बच्चों के साथ दीर्घ आयु तक सुखमय जीवन व्यतीत करते है।

सत्य-कर्म

सत्य-युग का प्रवेश द्वार

किसी भी व्यक्ति की आत्मा सत्य-कर्म करने के उद्देश्य से मानव रूपी शरीर या वस्त्र को अपनी इच्छा से धारण करते है किन्तु मानव रूपी शरीर या वस्त्र में जन्म लेने के बाद शिशु अवस्था में अस्मरण शक्ति नहीं होने के कारण अपने आत्मा एवं आत्मा के शक्ति के साथ सत्य-कर्म का ज्ञान भी विलुप्त हो जाता है जिसके कारण कोई भी व्यक्ति बाल अवस्था से असत्य-कर्म करने के लिए बाध्य हो जाते है यदि बाल अवस्था में किसी व्यक्ति को आध्यात्म का ज्ञान प्रदान किया जाए तो वह व्यक्ति अपने आत्मा के शक्ति से सत्य-कर्म करने में सक्षम हो जाते है किन्तु जो व्यक्ति पूर्व जन्म में सत्य-कर्मी होते है एवं सत्य-कर्म का फल शेष रह जाता है ऐसे व्यक्ति जन्म लेने के बाद अपने आत्मा की शक्ति का ज्ञान नहीं होने पर भी प्रकृति के द्वारा सत्य-कर्म करने के लिए बाध्य रहते है एवं उचित समय आने पर ऐसे व्यक्ति को स्वतः आध्यात्म का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

मानव-कर्म : किसी भी व्यक्ति के द्वारा अपनी योग्यता एवं सामर्थ के अनुसार अपना या अपने परिवार का भरण-पोषण एवं उन्नति के लिए किये गए कार्य को मानव-कर्म कहते है और मानव-कर्म मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है पहला शुद्ध या पवित्र आत्माओं के द्वारा किया जाने वाला सत्य-कर्म है जिसका फल अमृत के समतुल्य होता है और सत्य-कर्म के फल का सेवन करने से सुख, समृद्धि एवं शांति प्राप्त होता है एवं दूसरा अशुद्ध या अपवित्र आत्माओं के द्वारा किया जाने वाला असत्य-कर्म है जिसका फल विष के समतुल्य होता है और असत्य-कर्म के फल का सेवन करने से दुःख, दरिद्रता एवं चिंता प्राप्त होता है, किन्तु कुछ विशेष प्रस्थति में या किसी कार्य के सिद्धि हेतु या अन्य किसी कारण से एक शुद्ध एवं पवित्र आत्मा अपने शक्ति के द्वारा अपने या किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन में दुःख या दरिद्रता या चिंता या बीमारी या समस्या स्वयं उत्तपन करते है।

जब हमारा घर गन्दा होता है तो हम उसे स्वयं साफ़ करते है, यदि हमारा शरीर गन्दा होता है तो उसे भी हम स्वयं साफ़ करते है और यदि हमारा कपड़ा गन्दा हो जाता है तो उसे भी हम स्वयं साफ़ करते है विषम प्रस्थतियों में किसी दूसरे व्यक्ति या नौकर से साफ़ करवाते है किन्तु कभी भी अपने घर, शरीर या कपड़ा को गन्दा नहीं छोड़ देते है अन्यथा गंदगी से बीमारी होने का खतरा रहता है और यदि समय रहते बीमारी का इलाज नहीं किया गया तो आने वाले समय में यह बीमारी एक लाईलाज बीमारी बन जायेगा और इस लाईलाज बीमारी से हमारे शरीर की मृत्यु निश्चित है।

किन्तु जब हमारी शुद्ध एवं पवित्र आत्मा गन्दा होता है तो इसे साफ़ करने के लिए अपने मतदान के द्वारा अपने नेता या मुखिया का चुनाव करते है और यह नेता या मुखिया हमारे शुद्ध एवं पवित्र आत्मा की मुख्य गंदगी को साफ करने का ढोंग करते है और केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करते है तथा हमारे शुद्ध एवं पवित्र आत्मा की मुख्य गंदगी असत्य-कर्म के कारण हमारे आत्मा में अज्ञानता एवं अहंकार जैसी बीमारी उत्त्पन्न हो जाता है और इस बीमारी से ग्रसित होकर हमारी आत्मा की शक्ति नष्ट हो जाती है जिसके परिणाम स्वरुप हमारे शुद्ध एवं पवित्र आत्मा की मृत्यु हो जाती है।

मार्गदर्शन

आत्मा का पुर्नजन्म

"पाप ही पाप को काटे, पुण्य न काटे पाप को" अर्थात कोई व्यक्ति कितना भी दान-पुण्य क्यों नहीं कर ले वह अपने असत्य-कर्म के दंड(ऋण) को केवल असत्य-कर्म से ही काट सकते है उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति ने किसी भी प्रकार का अपराध किया है तो पुलिस के समुख जाकर अपने अपराध को मान कर उचित दंड(ऋण) का भोग करना ही न्याय है किन्तु यदि कोई व्यक्ति आत्म-हत्या कर ले तो उस व्यक्ति को किसी भी अपराध के लिए दंड देना असंभव हो जाता है एवं ऐसे प्रस्थति में वह व्यक्ति अगले जन्म में पूर्व-जन्म में किए गए अपराध के दंड(ऋण) से मुक्त रहता है ठीक इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति के आत्मा ने असत्य-कर्म किया है तो असत्य-कर्म का दंड दुःख, दरिद्रता एवं चिंता का भोग करके अपने असत्य-कर्म के दंड(ऋण) को समाप्त कर सकते है किन्तु यदि कोई व्यक्ति स्वयं अपने अशुद्ध या अपवित्र आत्मा की निर्मम हत्या कर दें तो ऐसे प्रस्थति में आत्मा को दंड देना असंभव हो जाता है एवं आत्मा के पुर्नजन्म होने पर पूर्व-जन्म में आत्मा के द्वारा किये गए असत्य-कर्म के दंड(ऋण) से मुक्त हो जाते है, जैसे मानव के पुर्नजन्म होने पर वह मानव अपराध-रहित होता है ठीक उसी प्रकार आत्मा के पुर्नजन्म होने पर वह आत्मा शुद्ध एवं पवित्र होता है एवं एक शुद्ध एवं पवित्र आत्मा ही अपने आत्म-शक्ति से सत्य-कर्म करने में सक्षम होते है।

कार्य-सिद्धि : जो कार्य किसी व्यक्ति के वश में नहीं होता है ऐसे असंभव कार्य को सिद्ध करने के लिए आत्मा का प्रयोग सदियों से किया जा रहा है और इसके लिए किसी मृत व्यक्ति के आत्मा का प्रयोग होता है तो कुछ लोग नर-बलि देकर अपना कार्य सिद्ध करते है क्योकिं किसी भी व्यक्ति के मृत्यु के बाद मृत व्यक्ति के आत्मा को अपने शक्ति एवं सत्य-कर्म का ज्ञान हो जाता है किन्तु कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने आत्मा की बलि देकर अपने आत्मा की शक्ति से अपने कार्य को सिद्ध नहीं करते है क्योंकि इसमें व्यक्ति के मृत्यु होने का भय रहता है किन्तु सही मार्गदर्शन में व्यक्ति की मृत्यु को टाला जा सकता है एवं कोई भी व्यक्ति अपने अशुद्ध या अपवित्र आत्मा की निर्मम हत्या करके पुनः शुद्ध या पवित्र आत्मा को जीवित करने में सफल हो सकते है एवं अपने शुद्ध या पवित्र आत्मा की शक्ति से सत्य-कर्म करने में सक्षम हो जाते है, दूसरे व्यक्ति के आत्मा की अपेक्षा अपनी आत्मा पूर्ण रूप से सुरक्षित होता है तथा वह व्यक्ति पूर्ण रूप से किसी भी कार्य को करने में आत्मनिर्भर हो जाते है जो सत्य-युग के मानव की पहचान है।

किसी व्यक्ति के अशुद्ध एवं अपवित्र आत्मा का शुद्धिकरण एक जटिल प्रक्रिया है किन्तु किसी व्यक्ति के अशुद्ध एवं अपवित्र आत्मा का की निर्मम-हत्या के बाद शुद्ध एवं पवित्र आत्मा का पुर्नजन्म बहुत ही सरल है उदहारण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी नशा का आदि है तो व्यक्ति के द्वारा अपने नशा को धीरे-धीरे छोड़ना किसी व्यक्ति के द्वारा अपने अशुद्ध एवं अपवित्र आत्मा का शुद्धिकरण के समतुल्य है एवं नशा का एक बार में ही त्याग कर देना किसी व्यक्ति के द्वारा अपने अशुद्ध एवं अपवित्र आत्मा का निर्मम हत्या के समतुल्य है, जो व्यक्ति अपने अशुद्ध एवं अपवित्र आत्मा का निर्मम हत्या करने में सफल हो जाते है वह आध्यात्मिक विश्वविद्यालय के माध्यम से सत्य-कर्म का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते है किन्तु जो व्यक्ति अपने अशुद्ध एवं अपवित्र आत्मा का शुद्धिकरण करते है उनका शुद्धिकरण के पश्चात ही सत्य-कर्म का मार्गदर्शन संभव है।

नामांकन

अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें

असत्य-कर्म के त्याग का अर्थ है केवल असत्य-कर्म का त्याग करना नहीं है बल्कि असत्य-कर्म के साथ असत्य-कर्म के फल का भी त्याग करना है और जो व्यक्ति स्वयं अपनी इच्छा से असत्य-कर्म के साथ असत्य-कर्म के फल स्वरुप अर्जित अपना तथा अपने माता-पिता एवं पूर्वजों के जमीन-जायदाद एवं धन-संपत्ति का सम्पूर्ण त्याग कर देते है केवल ऐसे व्यक्ति ही सत्य-कर्म के योग्य होते है एवं ऐसे व्यक्ति सत्य-कर्म के द्वारा धन अर्जित करके अपना तथा अपने परिवार एवं बच्चों का भरण-पोषण तथा उन्नति के लिए अपने जीवन को सदैव के लिए सत्य-कर्म के प्रति समर्पित कर देते है एवं आजीवन दुख, दरिद्रता एवं चिंता से मुक्त रहते है अतः जो भी व्यक्ति अपने जीवन में हो रहें दुख, दरिद्रता या चिंता से परेशान है वह अपने असत्य-कर्म के साथ असत्य-कर्म के फल का त्याग करके सत्य-कर्म के द्वारा अपने जीवन में सुख, समृद्धि एवं शांति प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक विश्वविद्यालय में नामांकन ग्रहण करें, सत्य-कर्म सत्य-युग के मानव की पहचान है, धन्यवाद।

आध्यात्मिक विश्वविद्यालय में नामांकन हेतु व्हाट्सएप्प संख्या (+91) 9470 22 5249 पर सन्देश के माध्यम से संपर्क कर सकते है।